माँ
कविता Poem
पेड़ की रूह (आत्मा)
स्वार्थ भरी इस दुनिया में
मतलबी लोगों के बीच
रूह हूं मैं
पेड़ की
कोई यह तो पूछे,
कहां से आई
यह रूह ?
वह भी एक पेड़ की
था मेरा भी वजूद
एक हरे भरे पेड़ से
खुशियां बांटा करता था
पेड़ मेरा
बहुत खुश होता था
प्रेम रस पीने से
जब बच्चे खेल-खेल में
लिपट जाते थे सीने से
जन्नत बसा करती थी
सुंदर सुंदर फूलों में
पर, मानव हंसा करता था
अपनी बड़ी-बड़ी भूलो में
ईंधन दिया ,फूल दिए ,
फल दिया, जीवन दिया
और अपना दिया जीवन
फिर भी, सीने पर कई कुल्हाड़ी खाई है
और
उस हरे पेड़ से मर-कर
रूह बाहर आई है
खैर छोड़ो,
रूह हूं मैं पेड़ की
चलती हूं जिंदगी की तलाश में
कभी दुख के रास्ते ,कभी सुख के वास्ते
आस है
कभी ना कभी ,कहीं ना कहीं
तो जिंदगी से मुलाकात होगी
चलते-चलते ,अचानक!!
सुनती हूं किसी के सुबुकने की आवाज
देखा , पास में कटा हरा पेड़ है
जिसके पास अकेली बैठी
नम आँखें के लिए, उसकी रूह
जो कह रही थी
विज्ञान के विनाश की गाथा
वह भी हो गई थी बेघर, मेरी तरह
क्या कहकर उसको ढांढस बंधाती
आख़िर…….
बस कहती रही कि
हर परोपकारी ,अपना सर्वस्व खोता है
हमेशा भला करने वाले का बुरा होता है
उठो बहन चलते हैं जिंदगी की तलाश में
कभी ना कभी कहीं ना कहीं
तो जिंदगी से मुलाकात होगी
हार नहीं मानूंगी मैं
रूह हूं
चलती हूं जिंदगी की तलाश में
पड़ा होगा बीज कंही
रूह के इंतजार में
फिर मिलेगा जीवन
और जिंदगी से मुलाकात होगी
और जिंदगी से मुलाकात होगी..................
-: आशीष कुमावत
ashishosm0@gmail.com
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